किसका धर्म खतरे में है, और कौन लोग खतरे में हैं ?
सोशल मीडिया का जितना सदुपयोग में लाया जाना चाहिए, उससे
कहीं ज्यादा दुरुपयोग में लाया जा रहा है। या यूं कहिए सोशल मीडिया न हुआ
कूड़ादान हो गया, जो मर्जी हो डालते-फेंकते रहो या धर्म के नाम पर लोगों को
कूढ़ परोसते रहो, क्या फर्क पड़ता है। फिर चाहे इनदिनों फेंकते-ढकेलते पोस्ट
के दौर में किसी के घर में आग लग जाये, किसी का धर्म संकट में आ जाये, कोई
स्वयं संकट में आ जाये, गली-चौराहे निर्दोष पुलिस से पिट जाये, आगजनी,
बलवा, लूट, मार, निजी प्रतिष्ठानों फूंकने दिए जाये या हत्या हो जाये इससे
किसी समाज या धर्म के ठेकेदारों को फ़र्क नही पड़ता है। आज के आकार लेते युवा
पीढ़ी जिन्हें पाजामा का नाडा बांधना-खोलना नही आता वह सबके आराध्य देव राम
पर टिप्पणी में आमादा है। क्या कीजियेगा जब उनके घरों के अभिभावक बच्चों
को मोबाइल पकड़ाकर ये नही पूंछते हैं कि तुम मोबाइल में करते क्या हो, तो
ऐसे लोग स्वयं ख़तरे में हैं। उनका घर ख़तरे में है, उनकी उन्मादी, ज़ाहिल सोच
ख़तरे में है। ये बड़ा विचारणीय प्रश्न है, जिस पर आज से, अभी से विचार शुरू
किया जाए, और उन उन्मादी, ज़ाहिल सोच वालों के हाथ पकड़े जाएं, ये सोए हुए
लोग हैं, उन्हें धर्म की अफ़ीम खिलाकर सुलाये गए लोग हैं। ऐसे लोग किसी
जाति, धर्म, मज़हब की रक्षा में नही निकले हैं बल्कि भारत देश जैसे महनीय
राष्ट्र और उसकी सौंदर्यता को तहस-नहस करने निकले हैं, घरों को फूंकने
निकले हैं। एक मजहबी वक़ील उन्माद फैलाने वालों का ज़मानत लेकर चौराहे में
सीना ठोकता है, और इससे निकलकर जब वह आता है तो सोशल मीडिया में स्वयंभू का
तख़्ती टांगे न्यायधीश बना है। कुल मिलाकर ऐसे पशुओं के उपासक लोग हैं जो
अपनी उन्मादी सोच से ख़तरे हैं। इन्हें रोका जाए, जेल में डाला जाए, इनसे
देश का संविधान बचाया जाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ऐसे लोगों का तभी
जागता है, जब वह अपने उन्मादी, ज़ाहिल सोच से स्वयं ख़तरा पैदा करते हैं।
क्या यही वो लोग हैं, जो खतरे में हैं क्या देश का एक ऐसा धर्म जो स्वयं
ख़तरा पैदा करता है फिर स्वयं ख़तरा महसूस भी करता है। क्या यही वो लोग हैं
जो ख़तरे में हैं। जाग जाओ, उठ जाओ, ख़ुद को ख़ुद ही झकझोरो, सिर हिलाओ, आंखों
में पानी का छीटा मारो और हाथ उठाकर ईश्वर से पूंछो किसका धर्म ख़तरे में
है, क्या ईश्वर आप ख़तरे में हैं, कोई क़िताब ख़तरे में है, क्या संविधान ख़तरे
में, या क्या किसी की अभिव्यक्ति ख़तरे में है। मैं
आपको बताता हूँ क्या ख़तरे में है बस ऐसे लोग जो ख़तरा बताते हैं, धर्म की
रक्षा हेतु हाथ में बेल्ट निकालते-भाँजते हैं उनका उन्मादी, ज़ाहिल सोच ख़तरे
में वो स्वयं ख़तरे में है। उन्मादी, ज़ाहिल सोच वालों के इतर जो वास्तविक
रूप से ख़तरे में है वो है सुबह अपने बच्चे, बीवी और माँओ माथा चूम कर ऑफिस
को जाने वाले निर्दोष लोग ख़तरे में हैं, वो प्रतिष्ठान, ठेले, गुमटी ख़तरे
में है जो दो वक्त की रोटी कमाने हेतु एड़ियां घिस रहा है। वो निर्दोष
राहगीर ख़तरे में है, जिनकी ओर धर्म का अफ़ीम खाएं उन्मादी-ज़ाहिल भीड़ दौड़ रही
है।
किसका धर्म खतरे में है, और कौन लोग खतरे में हैं ?
Reviewed by dainik madhur india
on
7:17 AM
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